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आजाद भारत की राजधानी में इंडिया गेट ,राजपथ और विजय चैक पर उमडे जनसैलाब का
न तो कोई निजी स्वार्थ था और ना ही कोई ऐसी मांग जिससे उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ पहुंचता हो।
उनका कोई नेता भी नहीं था और ना ही वे किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता थे। वे किसी यूनियन की
आवाज पर भी नहीं गरज रहे थे और ना ही उनके आगे पीछे आरएसएस का हाथ था। आजादी के बाद
शायद पहली बार ऐसा जनसैलाब सडकों पर उतरा हो। दुष्यंत कुमार जिंदा होते तो देखते कि
सडकों पर कोई क्षणिक उत्तेजना नहीं थी, यह वह रक्त था जो वर्षो से उनकी नसों में खौल
रहा था । उनकी पंक्तियां आज साकार हो रही थीं-एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों , इस दिये
में तेल से भीगी हुई बाती तो है।गैंगरेप की घटनाएं तो आम हो चुकी थीं लेकिन इस बार लोगों को
याद आईं कमलकांत बुधकर की पंक्तियां- उनकी आंखों का मर गया पानी, अब तो सर से गुजर गया पानी।
तो वह अपने को रोक नहीं सके और उनके कदम खुद ब खुद आगे बढते गए । चेहरों पर आक्रोश,
भिंची हुईं मुट्ठियां, ऐसा लग रहा था कि पर्वत सी हो चुकी पीर अब पिघल रही हो । उसका मकसद
कोई हंगामा खडा करना नहीं था। ना ही वह राजतंत्र के खिलाफ गुस्सा जाहिर कर रहे थे । गैंगरेप
की शिकार एक युवती जिसे वह न तो जानते थे और ना ही पहचानते थे, वह उनकी कोई रिश्तेदार भी नहीं थी
,उसे इंसाफ दिलाने के लिए वे जूझ रहे थे पुलिस की बर्बरता से , सामना कर रहे थे लाठियों का
, पानी की बौछारों का और आंसू गैस के गोलों का।
दिल्ली ही नहीं देश के तमाम हिस्सों में गुस्सा फूट रहा था लावा बन कर । गहरी नींद में सो रही सरकार
ने करवट बदली तो याद आईं माहेश्वर तिवारी की पंक्तियां- कांप जाएगा अंधेरा एक हरकत पर अभी, आप
माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए।
फिलहाल , सडकों पर उतरे इस जनसैलाब ने इतना तो संकेत दे दिया है कि अब चुप्पियों के बीच जनता
नहीं जीने वाली खासतौर पर युवा वर्ग । उसे किसी नेतृत्व का भी सहारा नहीं चाहिए।उसके कंधों पर बंदूक
चलाने वाले राजनेताओं को अबइस आंदोलन से सबक ले लेना चाहिए । समय रहते यदि वह नहीं चेते
तो वह दिन अब दूर नहीं जब जनता उन्हें नकार दे। पुुरुषोत्तम प्रतीक की इन पंक्तियों के साथ बात खत्म-
घर से सडकों तक, सडकों से चैराहों तक आए शायद।
बढते – बढते गुस्सा उसका, संसद को खा जाए शायद।।
डा मनोज रस्तोगी
मुरादाबाद
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