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पीढिय़ों का संघर्ष आज की ज्वलंत समस्या है । पाश्चात्य शिक्षा पद्धति , अर्थ प्रधान समाज तथा अनेक प्रकार के सामाजिक ,मनोवैज्ञानिक कारणों से नई व पुरानी पीढिय़ों में संघर्ष बढ़ता ही जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप ईष्र्या ,द्वेष, कलह, उन्माद, निराशा तथा मानसिक उद्वेग बढ़ रहे हैं। कभी -कभी तो इस संघर्ष से उत्पन्न मानसिक तनाव- गृह क्लेश, पागलपन तथा आत्महत्या तक में परिणत होते देख गया है। इस प्रकार के तनाव से
जीवन में कटुता ,विषाक्तता और रिक्तता भरी रहती है जिसके कारण आत्मविश्वास के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।
वर्तमान में ज्यादातर देखने में आ रहा है कि युवा वर्ग वृद्धों का अनादर कर रहा है तो बुजुर्ग पीढ़ी को युवाओं की स्वछंद जीवन शैली नहीं भाती है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन पीढिय़ों के संघर्ष के लिए उत्तरदायी कौन है? कुछ लोगों का मानना है कि बुजुर्ग आज के युवक -युवतियों पर तीखी टीका-टिप्पणी करते है । कहते हैं कि हमारे जमाने में तो मर्यादा थी । अब तो ऐसा लगता है कि सारी लाज-शर्म बेच खाई है । वहीं कुछ लोगों का कहना है कि बुजुर्ग सदैव ही दकियानूसी व आउट ऑफ डेट परंपराओं को ढो रहे हैं। स्थिति यह है कि युवा पीढ़ी को अपनी जीवनशैली में दादा-दादी तो दूर ,माता-पिता की दखलअंदाजी तक सहन नहीं होती। ठीक है कि पीढिय़ों के संघर्ष में ये कारण हो सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण हमारी
संस्कार विहीन शिक्षा है।आज की शिक्षा में मूल्यों का नितांत अभाव पाया जाता है। हम परस्पर कैसा व्यवहार करें ? परिवार में एक-दूसरे के साथ संबंध कैसे हों ? दया, प्रेम,सेवा ,त्याग व सहनशीलता का जीवन में कितना मूल्य है ? माता-पिता , दादा-दादी के प्रति हमारा क्या कत्र्तव्य है? हम आज यह सब भूलते जा रहे हैं। संस्कार हीनता के कारण पीढिय़ों के मध्य दरारें पैदा होती जा रही हैं।
दूसरा मुख्य कारण है आर्थिक परिस्थितियां । बढ़ती महंगाई,बेरोजगारी, गरीबी, अल्प आय आदि ऐसे अनेक कारण हैं जिनकी वजह से परिवार में अधिक सदस्यों की संख्या, घर के खर्चों के बीच बुजुर्गों की बीमारी बोझ स्वरूप लगती है।
तीसरा कारण है आज की यंत्रवत जीवनशैली। सुबह से शाम, काम ही काम। किसी शायर ने कहा है कि सुबह होती है, शाम होती है,उम्र यूं ही तमाम होती है। इन स्थितियों में जीवन मूल्यों ,आदर-अनादर,सेवा की आशा करना बेमानी है। बुजुर्ग अपने बेटे-बहुओं की व्यस्तता को नजरांदाज कर उसे अपनी उपेक्षा मानने लगते हैं। बस यहीं से शुरू हो जाती है संंघर्ष की शुरूआत।
चौथा कारण है सामाजिकता का अभाव । इसके कारण मानवीय संवेदनाएं व्यक्ति उन्मुख होती जा रही हैं ।
इन तमाम स्थितियों के बीच दोनों पीढिय़ों के बीच सामंजस्य कैसे हो। यह एक यक्ष प्रश्न है। कहावत है कि बच्चा-बूढ़ा एक समान । अगर युवा पीढ़ी इसे समझ जाएं तो समस्या का काफी हद तक समाधान हो जाएगा। वहीं बुजुर्गो को भी अपनी जीवन शैली में थोड़ा बदलाव कर युवा पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिला कर चलने का प्रयास करना चाहिए।
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