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महर्षि दयानन्द ने रुहेलखंड क्षेत्र में किये थे शास्त्रार्थ

परंपरा
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:::::::महर्षि दयानन्द सरस्वती के जन्म दिवस 27 फरवरी पर विशेष:::::
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश भर में घूम-घूम कर धार्मिक और सांस्कृतिक जागरण कर वैदिक धर्म का प्रचार -प्रसार किया था। इस दौरान वह रुहेलखंड क्षेत्र में भी आये। यहां महर्षि ने मुरादाबाद ,बरेली , बदायूं, शाहजहांपुर में शास्त्रार्थो के जरिए असत्य का खंडन कर सत्य की पताका फहराई थी।
मुरादाबाद में पहली बार महर्षि सन् 1876 में आये और राजा जय किशन दास सीएसआई की कोठी में ठहरे । यहां उन्होंने कई दिन वैदिक धर्म संबंधी व्याख्यान दिये। इसी दौरान रैबरेंड डब्ल्यू पार्कर साहब से लगभग पंद्रह दिन महर्षि दयानंद जी का लिखित शास्त्रार्थ हुआ था। शास्त्रार्थ के अंतिम दिन सृष्टि कब उत्पन्न हुई पर विशद् चर्चा हुई। दूसरी बार 3 जुलाई सन् 1879 को महर्षि मुरादाबाद आये । इस बार भी स्वामी जी ने कई व्याख्यान दिये। एक दिन मिस्टर स्पोडिंग साहब कलेक्टर के अनुरोध पर उन्होंने मुरादाबाद छावनी की पहली कोठी में राजनीति पर व्याख्यान दिया। उनकी ओजस्वी वाणी और विद्वता से प्रभावित हो स्पोडिंग ने उनकी प्रशंसा की। इन्हीं दिनों प्रवास के दौरान स्वामी जी और मुंशी इंद्रमणि के बीच अभिवादन को लेकर काफी चर्चा हुई। आर्य ग्रंथों और वेदों का उदाहरण देते हुए स्वामी जी ने नमस्ते अभिवादन को ही उचित ठहराया।
मुरादाबाद से वह 31 जुलाई 1879 को बदायूं पहुंच गये। उनकेसाथ आर्य समाज मुरादाबाद के सदस्य मुंशी बलदेव प्रसाद भी थे। वहां वह 14 अगस्त तक रहे। इस दौरान उन्होंने ईश्वर विषय पर व्याख्यान दिये।
इसके बाद बरेली में 14 अगस्त से 3 सितम्बर 1879 तक रहे। वहां भी उनके कई व्याख्यान हुए। इसी दौरान 25 ,26 और 27अगस्त को बरेली पुस्तकालय में स्वामी जी और पादरी टी जे स्कॉट के मध्य शास्त्रार्थ हुआ। ला. लक्ष्मी नारायण खजांची इसके सभापति थे।
इस शास्त्रार्थ के पहले दिन का विषय था- पुनर्जन्म का सिद्धान्त। इसमें महर्षि ने अपने तर्को से इसे सिद्ध कर दिया । दूसरे दिन का विषय था – ईश्वर देह धारण करता है। और तीसरे दिन – ईश्वर अपराध क्षमा भी करता है विषय पर शास्त्रार्थ हुआ । इन दोनों विषयों पर उन्होंने वैदिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए इनका खंडन किया। महर्षि दयानन्द ने चांदापुर, जिला शाहजहांपुर में भी वैदिक धर्म की पताका फहराई थी। यहां के रईस मुंशी प्यारे लाल कायस्थ ने 19 मार्च सन 1877 में ‘ब्रह्म विचारÓ नाम से दो दिवसीय मेला आयोजित किया था। इसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती, मुरादाबाद के मुंशी इन्द्रमणि के अलावा ईसाई मत की ओर से पादरी टीजी स्कॉट , पादरी नवल जी , पादरी पारकर साहब, पादरी जॉनसन, इस्लाम मत की ओर से अरबी मदरसा देवबन्द के विद्वान प्रधानाध्यापक मौलवी मुहम्मद कासिम साहब, मौलवी सैयद अबुल मंसूर साहब देहलवी पहुंचे थे।
इस मेले में पांच प्रश्नों पर इन विद्वानों में शास्त्रार्थ हुआ था। ये प्रश्न थे – संसार को परमेश्वर ने किस चीज से, किस समय और किसलिए बनाया?, ईश्वर सबमें हैं या नहीं ? , ईश्वर न्यायकारी और दयालु किस प्रकार का है?, वेद, बाइबिल और कुरान के ईश्वरोक्त होनेमें क्या प्रमाण है?, मुक्ति क्या वस्तु है और किस प्रकार प्राप्त हो सकती है?
महर्षि का मानना था कि विद्वानों में परस्पर यह नियम सदा होना चाहिए कि अपने – अपने ज्ञान और विद्या के अनुसार सत्य का मंडन और असत्य का खंडन कोमल वाणी के साथ करें कि जिससे सब लोग प्रीति से मिल कर सत्य का प्रकाश करें। एक दूसरे पर आक्षेप करना, बुरे – बुरे वचनों से बोलना, द्वेष से कहना कि वह हारा और यह जीता – ऐसा नियम कदापि नहीं होना चाहिए क्योंकि सब प्रकार का पक्षपात छोड़कर सत्य भाषण करना सबको उचित है। एक दूसरे के विरुद्ध वाद करना यह अविद्वानों का स्वभाव है, विद्वानों का नहीं। शाष्त्रार्थ के कठोर वचन का भाषण न करें।

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