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उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में महर्षि दयानंद सरस्वती देशभर में घूमकर पाखंड खंडिनी पताका फहराते हुए शास्त्रार्थो और सभाओं के माध्यम से विभिन्न मतों का खंडन कर रहे थे। आर्य समाज की स्थापना के साथ इसे और गति मिली और जब उनका अद्वितीय ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश प्रकाशित हुआ तो समूचे देश में तहलका मच गया। इस ग्रंथ का सभी मतों के अनुयायियों द्वारा घोर विरोध किया जाने लगा। मुरादाबाद में भी स्वामी दयानंद का विरोध शुरू हो गया। यहां के विद्यावारिधि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने सत्यार्थ प्रकाश की कटु आलोचना करते हुए दयानन्द तिमिर भास्कर की रचना की।
सत्यार्थ प्रकाश के लेखन और प्रकाशन में मुरादाबाद का विशेष योगदान रहा(इसका विवरण पूर्व में पोस्ट ब्लॉग- ‘महर्षि दयानंद ने मुरादाबाद में स्थापित की थी आर्यसमाज की शाखाÓ में किया जा चुका है।)तो इसके विरोध में भी मुरादाबाद से स्वर गूंजे। यहां के विद्यावारिधि पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने लगभग 425 पृष्ठों के ग्रंथ दयानन्द तिमिर भास्कर की रचना कर सत्यार्थ प्रकाश की कटु आलोचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के मत का खण्डन करते हुए मूर्तिपूजा,श्राद्ध, अवतार, वर्ण व्यवस्था आदि सनातन धर्म का मण्डन किया। यह ग्रंथ 10 सितम्बर 1890 ई. को सम्पूर्ण हुआ।
श्री मिश्र जी कट्टर सनातनधर्मी थे। ग्यारह वर्ष की उम्र में जब वह गवर्नमेंट हाईस्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तो वहां एक आर्यसमाजी अध्यापक से उनका प्रतिदिन धर्मशास्त्र और मूर्ति पूजा आदि विषयों पर विवाद होता रहता था। इस कारण वे वहां मात्र दो- तीन वर्ष ही पढ़ पाए। अंत में उन्होंने स्कूल जाना ही छोड़ दिया। इसके बाद मिश्र जी घर पर ही पं. भवानी दत्त शास्त्री से संस्कृत पडऩी आरम्भ कर दी। एक वर्ष में ही संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय की प्राज्ञ परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। इसके अतिरिक्त बंगला तथा गुजराती भाषाओं का ज्ञान भी उन्होंने पन्ना लाल जैन वाकलीवाल से प्राप्त किया। अंग्रेजी और फारसी भाषा के भी वे अच्छे ज्ञाता थे।
सन् 1889 में मुरादाबाद में उन्होंने एक संस्था कामेश्वर धर्म सभा स्थापित की थी। प्रधान एवं सहयोगी व्याख्याता, धर्मोपदेशक के रुप में उन्होंने देश के अनेक नगरों में सनातन धर्म संबंधी व्याख्यान देकर विशेष ख्याति अर्जित की।
उनका श्री भारत धर्म महा मंडल में बहुत मान था। वहां से आपको महोपदेशक तथा संस्कृत साहित्य रत्नाकर की उपाधि से भी विभूषित किया गया था। कलकत्ता के कान्यकुब्ज मंडल द्वारा उन्हें विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त अनेक राजा-महाराजाओं के यहां से स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुए थे।
उन्होंने श्री बाल्मीकि रामायण की टीका(क्षेपक सहित)की, जिसे वेंकेटेश्वर प्रेस मुम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया। यह आज भी देश भर में प्रसिद्ध है। उनकी बिहारी सतसई की टीका पर प्रख्यात समालोचक पं. पद्म सिंह शर्मा ने सतसई संहार नाम से एक लेखमाला ही लिखी थी।
श्री मिश्र का लेखन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। तंत्र साधना, स्त्रोत कर्मकाण्ड, आयुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास, वेद, पुराण, शास्त्र, योग सांख्य तथा व्याकरण आदि ऐसे अनेक विषय है जिन पर उन्होंने लेखनी चलायी।
भाषा टीकाओं के अतिरिक्त कई मौलिक ग्रंथों की भी रचना उन्होंने की। सीता वनवास नामक नाटक तोअत्यंत प्रसिद्ध रहा। मिश्र जी के इकहत्तर पृष्ठों तथा 5 अंकों में सम्पूर्ण इस नाटक को खेमराज श्री कृष्ण दास ने अपने श्री वेंकेटेश्वर यंत्रालय बम्बई में मुद्रित – प्रकाशित किया था। इसके अतिरिक्त महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध नाटक शकुन्तला तथा संस्कृत नाटककार भट्ट नारायण के प्रसिद्ध नाटक वेणी संहार का भी भाषानुवाद उन्होंने किया।
मिश्र जी ने ज्योतिष ग्रंथों- आनन्द प्रकाश, वृहद वन जातक, लग्न जातक, वर्ष योग समूह, आयुर्वेद ग्रंथों- कल्पपंचक प्रयोग, दृव्य गुण, योग शतक, वैद्य सर्वस्व, वैद्यक सार, शालिहोत्र, तथा मंत्रशास्त्र ग्रंथों- काम रत्न, तंत्र सार चौबीस गायत्री, महायक्षिणी साधन, यक्षिणी साधन, नामक ग्रंथों की भी भाषा टीकाएं लिखीं। उनके ग्रन्थ वेकेटेश्वर प्रेस, निर्णय सागर प्रेस बम्बई ज्ञान सागर प्रेस बम्बई तथा लक्ष्मी नारायण प्रेस (मुरादाबाद) से प्रकाशित हुए।
पं.ज्वाला प्रसाद मिश्र का जन्म मुरादाबाद नगर के दिनदार पुरा नामक मोहल्ले में आषाढ़ कृष्ण द्वितीया संवत् 1919 सन 1862 ई. को और देहावसान सन्1916 ई. को हुआ।
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