परंपरा
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आखिर कब फिरेंगे घूरे के दिन
मैं जानता हूं
जब मेरे किसी मित्र के
शुभागमन पर
अंदर से
पत्नी की कर्कश आवाज आती है
चाय ले लीजिए
तो उस आवाज में
कितनी कुढऩ होती है
उबली हुई चाय की पत्ती
जैसी कड़ुवाहट होती है
मैं समझ जाता हूं
कि आज फिर
उधार ली गई
चीनी की चाय बनी होगी
मैं देखता हूं
जब बच्चे
मिठाई खाने की जिद करते हैं
और मैं उन्हें
स्वाध्याय का महत्व समझाकर
कुछ पत्रिकाएं खरीद लाता हूं
तो उनकी आंखों में
कितनी निराशा होती है
अपने खुश्क होठों पर
जीभ फेर कर
वह फोटो देख और चुटकुले पढ़ते हुए
मुंह का बिगड़ा जायका बदलने लगते हैं।
मैं सोचता हूं
कि आखिर कब फिरेंगे घूरे के दिन
और कब पूरे होंगे बारह साल
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