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हजार-हजार के आठ नोट

परंपरा
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आज उसे पगार मिली थी। सुबह से वह काफी खुश था। हो भी क्यों न…. इस दिन का तो वह पिछले दस दिन से इंतजार कर रहा था। ये दस दिन उसने काटे ,यह तो बस वही जानता है। शाम को बड़े बाबू ने जब हजार- हजार के आठ नोट दिए तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा और वह झूमता हुआ फैक्ट्री के गेट से बाहर निकल गया। जेब में पड़े नोटों को वह कस कर इस तरह पकड़े हुआ था कि कहीं गिर न जायें। अभी वह थोड़ी दूर ही चला होगा कि उसे इंतजार करता हुआ एक चेहरा दिखाई दिया। वह चेहरा उसके दूधिए का था,जिसका वह पिछले महीने भी बिल नहीं चुका पाया था। उसे देखकर उसके चेहरे खुशी की रेखाएं मिटने लगीं और वह उससे नजरें बचा कर जाना ही चाहता था, तभी उसे सामने से आता हुआ एक और चेहरा दिखाई दिया । यह चेहरा राशन के दुकानदार का था, जिससे वह पूरे महीने राशन उधार लेता था। वह उससे भी बच कर निकलना चाहता था कि एक और चेहरा उसकी ओर बढऩे लगा। यह चेहरा था – किराया मांगता हुआ मकान मालिक का। आखिर उसने अपना चेहरा हथेलियों में छिपा लिया लेकिन हथेलियों में भी कतारबद्ध चेहरे दिखाई देने लगे। असमय उभर आईं झुर्रियों भरा उसकी पत्नी का चेहरा….,बीमार पड़ी बूढ़ी मां का खांसता चेहरा….,अभावग्रस्त दोनों बच्चों के कमजोर चेहरे,जो आज सुबह से ही उसके लौटने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। धीरे-धीरे उसके उसके पैर बोझिल होते गये,उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछलाने लगीं। वह जेब में पड़े नोटो को मु_ी में और कसते हुए सोचने लगा….
दो महीने का दूध का बिल-सत्रह सौ रुपये ,राशन का बिल- तीन हजार रुपये,मकान का किराया-बारह सौ रुपये, बिजली का बिल-चार सौ रुपये, गैस का सिलेंडर-तीन सौ पैंसठ रुपये, दोनों बच्चों की फीस पांच सौ रुपये और सब्जी के लिए भी तो चाहिए रोज कम से कम पच्चीस-तीस रुपये….. बाकी खर्चा……..???????

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